डार्क हॉर्स
खाना खाने के बाद रायसाहब बेड पर जा बैठे और तकिया के नीचे से 'द हिन्दू' निकालकर बोले, "थोड़ा अखबार पढ़ लेते हैं हम आप भी थोड़ी देर कुछ पत्रिकाएँ देख लीजिए संतोष जी थोड़ा करेंट में कुछ देख लीजिए। शाम को बत्रा में हम लोगों के सर्किल में चलिएगा तो बातचीत में कम्फरटेबल रहिएगा।" इस तरह से रायसाहब ने संतोष को अपनी मंडली के महात्म्य के बारे में बता दिया था।
द हिन्दू, हर हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए ज्ञान और जानकारी से ज्यादा प्रतिष्ठा का अखबार था वह लड़का ही क्या जिसके कमरे पर सुबह-सुबह हिन्द फेंका हुआ न मिले, यह अलग बात है कि उस अखबार की रबड़ खुले न खुले। यद्यपि ज्यादातर लड़के इस अखबार का बस टाइटल 'द हिन्दू' पढ़कर रख देते थे पर कुछ ऐसे भी मेहनती लड़के होते थे जो डिक्शनरी निकालकर चार घंटे तक हिन्दू पढ़ते थे और बड़ा आत्मविश्वास टाइप फील करते थे। रायसाहब ऐसे ही मेहनतकश द हिन्दू रीडरों में से थे। पर आज रायसाहब केवल तस्वीर देखकर ही खबरों का अंदाजा लगा रहे थे क्योंकि संतोष के सामने डिक्शनरी निकालकर वे अभी तक का अपना टाइट भौकाल ढीला नहीं करना चाहते थे बिना कुछ समझे आखिर आदमी कितनी देर तक अखबार के पन्ने उलटता! रायसाहब ने जल्दी ही पेपर रखकर कहा, "चलिए बत्रा निकलते हैं, आपका रूम भी तो ढूँढना होगा ना।"
संतोष भी हाथ में लिए क्रॉनिकल पत्रिका को टेबल पर रखते हुए बोला, "हाँ चलिए, रुमया तो खोजना होगा!"
रायसाहब तुरंत मुँह पर पानी मार फ्रेश हुए, बाल मे भृगराज तेल लगाया। शर्ट- पेंट पहनी और संतोष के साथ बत्रा की ओर निकल पड़े। संतोष मन-ही-मन अभी थोड़ी देर पहले पढ़े हुए कॉनिकल के कुछ फैक्ट्स को दोहराता जा रहा था। वह पहली बार एक ऐसी मंडली से मिलने जा रहा था जहाँ पर बिना ज्ञान के मुँह केवल चाय पीने के लिए ही खोला जाता था। संतोष पहले दिन अपनी उपस्थिति केवल चाय पीने तक नहीं रखना चाहता था वह मन ही मन इस बात के लिए तैयार हो रहा था कि आज अपनी गर्म उपस्थिति दर्ज करा ही दे। उसने नौवी कक्षा के ग्रामर की किताब में एक अंग्रेजी की लोकोक्ति पढ़ी थी फर्स्ट इस्परेशन इज द लास्ट इम्प्रेशन सो आज उसके उसी इम्प्रेशन की बात थी। रास्ते में चलने के दौरान रायसाहब नेहरू बिहार से लेकर मुखर्जी नगर तक सड़क के दोनों किनारे पड़ने वाले हर गली-मकान का डिजाइन और किराये के बारे में बताते जा रहे थे। संतोष भी अपने संभावित गुफाओं को गौर से देखता जा रहा था। दोनों अब बैज शुक्ला की चाय की दुकान पर पहुंच चुके थे। शुक्ला जी लगभग चालीस बरस के रहे होंगे। बनारस के रहने वाले शुक्ला जी का पूरा नाम बजरंग शुक्ला था शुक्ला जी एक समय नोएडा की एक प्राइवेट कंपनी में सुपरवाइजर के रूप में काम कर रहे थे। साढ़े पाँच हजार महीने की पगार से क्या होना था इस महंगाई में! बजरंग